Sunday, December 9, 2012

ना जाने ये ज़िन्दगी कहाँ ले जा रही है

यादें तो बस यादें होती हैं। कुछ भूली-बिसरी होती हैं तो कुछ ऐसी ताज़ा कि उनको हम आज भी जीते हैं।
कुछ यादें ऐसी भी होती हैं जिनको हम कभी चाह कर भी भुला नहीं सकते और कुछ ऐसी भी जिनको हम भूल जाने के डर से बार-बार याद करते रहते हैं।
कड़वी, नमकीन, खट्टी, मीठी, बकबकी। (जी हाँ, कुछ ऐसी भी होती हैं।)

कभी गौर से सोचो कि अनुभव (experience) किसे कहते हैं? किसी भी बात या घटना को सिर्फ महसूस करना और समझना ही अनुभव नहीं होता। जब आप उसकी सीख को याद कर लेते हो तभी वो अनुभव बनता है।

"यादें ही अनुभव होती हैं।" - मयंक अग्रवाल
प्रभाव (impression) मारने / झाड़ने के लिए अगर मेरी ऊपर लिखी लाइन कहीं चेपनी (copy) हो तो लेखक (author) में मेरे नाम के साथ ही चेपने कि कृपा करें। (ही ही ही... इसी बहाने मेरा भी impression पड़ जायेगा।)

दोस्तों ये यादें तभी बनती हैं जब ज़िन्दगी चलती है। और अगर चलती है तो कहीं ले कर भी जाती होगी। लेकिन कहाँ? ये तो एक अनबूझा (unanswered) सवाल है लेकिन ज़िन्दगी में कैसे-कैसे अनुभव होते हैं उनको इस बार मैंने इस शायरी में लिखने की कोशिश करी है।

और हाँ, अपनी प्रतिक्रिया तथा टिप्पणी देने में किसी भी प्रकार का संकोच मत करना। जो भी दिल को लगे वो टिपिया देना।


मुट्ठी से रेत की तरह फिसलती जा रही है,
ना जाने ये ज़िन्दगी कहाँ ले जा रही है।
 
हर किस्से का लगता है कि अब अंजाम होगा,
हर अंजाम इक अफ़साना लिखे जा रही है,
ना जाने ये ज़िन्दगी कहाँ ले जा रही है।
 
ख्वाहिशों से डर लगने लगा है मुझको,
हर एक ख़्वाब रौंदे जा रही है,
ना जाने ये ज़िन्दगी कहाँ ले जा रही है।
 
अपनों से मुझे आने लगा है खौफ़,
हर अपने को पराया बना रही है,
ना जाने ये ज़िन्दगी कहाँ ले जा रही है।
 
मैं ना चाहूँ फ़हम-ओ-तज़ुर्बा भी तो क्या,
पल-पल सबक सिखाये जा रही है,
ना जाने ये ज़िन्दगी कहाँ ले जा रही है।
 
हर मोड़ पर लगता है कि मंजिल नहीं है दूर,
हर मोड़ एक नयी राह दिखा रही है,
ना जाने ये ज़िन्दगी कहाँ ले जा रही है।
 
दोज़ख में भी जगह ना मिलेगी मुझको,
इतने जुर्म कराये जा रही है,
ना जाने ये ज़िन्दगी कहाँ ले जा रही है।
 
दफ़न हो जाऊँगा इस अर्ज के अन्दर,
पैरों तले ज़मीन खिसका रही है,
ना जाने ये ज़िन्दगी कहाँ ले जा रही है।
 
दुनिया से अंजान अकेला रहता हूँ मैं,
मेरी तन्हाई का भी तमाशा बना रही है,
ना जाने ये ज़िन्दगी कहाँ ले जा रही है।
 
शाम-ओ-सहर जाता था बन्दिगी के लिए,
आज मयखाने की ओर बुला रही है,
ना जाने ये ज़िन्दगी कहाँ ले जा रही है।
 
ना जाने ये ज़िन्दगी कहाँ ले जा रही है...
 
 

Saturday, March 3, 2012

झोंका हवा का

ना ना ना... ये मत सोचना की मैं "हम दिल दे चुके सनम" चलचित्र का गाना लिखने वाला हूँ। वो गाना "महबूब आलम कोतवाल" ने लिखा है और मैं उस पर अपना कोई हक़ नहीं जमाने वाला। ये तो मेरी नयी शायरी का शीर्षक है जो कि मेरी मूल रचना (original writing) है।

मैं जो भी लिखता हूँ वह मेरा स्वयं रचयित होता है और इस बात के लिए तो रजनीकांत भी मेरी तारीफ़ करता है। (अबे हँसो मत।)

और जैसा कि कहते हैं ना कि "उम्मीद पर तो दुनिया कायम है" वैसे ही हर बार की तरह मैं इस बार भी उम्मीद करता हूँ कि आपको ये शायरी भी पसंद आएगी।

बताइएगा ज़रूर, जो पसंद आये वो भी और जो नापसंद आये वो भी। (सुधरने का मौका तो मुझे मिलता रहना चाहिए, भले ही मैं सुधरने की कोशिश भी ना करूँ। ही ही ही...)


झोंका हवा का जब उसके बालों को सहलाता है,
जब हौले से उसके गालों को छूकर जाता है,
करता है अठखेलियाँ जब उसके झुमके से,
मेरा रश्क बढ़ता जाता है, मेरा रश्क बढ़ता जाता है।

अपने ज़ोर से जब उसकी पलकों को झपकाता है,
अपने गुज़रने की आवाज़ उसके कानों में सुनाता है,
छेड़ता है कम्बख्त जब उसके दुपट्टे को,
मुझे गुस्सा दिलाता है, मुझे गुस्सा दिलाता है।

गर्म होकर जब उसके माथे पर शिकन लाता है,
कभी होकर सर्द उसके हाथों को सिकुड़ाता  है,
करता है परेशां जब उसको गर्द से,
मेरा दुश्मन बन जाता है, मेरा दुश्मन बन जाता है।

तपती धूप में जब ठंडा होकर आता है,
सुहाने मौसम को जब उसकी तरफ रूझाता है,
लाता है मुस्कान जब उसके चेहरे पर,
मुझे अपना मुरीद बनाता है, अपना मुरीद बनाता है.....